23 साल की उम्र मे आंखों की रौशनी खोई, ठेला लगाकर चलाया घर; आज सालाना करता है 30 करोड़ का बिजनेस

Success story of bhavish bhatia in hindi ,

हर इंसान में कोई न कोई कमियां होती हैं, अगर आप कड़ी मेहनत कर उन कमियों को दूर करने के लिए मेहनत करेंगे तो आपको सफलता जरूर मिलेगी. आज की कहानी इसका जीता-जागता उदाहरण है. आज हम आपको एक ऐसे शख्स के बारे में बताने जा रहे हैं जिसने नेत्रहीन होते हुए भी करोड़ों की कंपनी बना ली है और अपनी कंपनी के 2000 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहा है. उसका नाम भावेश भाटिया है.

भावेश का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था. नेत्रहीन होने के बावजूद आज उन्होंने जो सफलता हासिल की है, वह सभी के लिए बेहद प्रेरणादायक है. इतना ही नहीं, उनकी कंपनी की खास बात यह है कि वे अपनी कंपनी में नेत्रहीन लोगों को समायोजित करना पसंद करते हैं. आइए जानें कि उन्होंने इसे कैसे हासिल किया.

भावेश महाराष्ट्र के लातूर जिले के सांगवी गांव के रहने वाले हैं. उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था. बचपन में भावेश की नजर अच्छी थी. लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उसकी आंखों की रोशनी कम होती गई. स्कूल और कॉलेज के दिनों में कम दृष्टि के कारण उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. उनका कहना है कि जब उनकी आंखों की रोशनी कमजोर थी तो वह एक भी किताब नहीं पढ़ सकते थे. इस वजह से उन्हें लिखने में दिक्कत होती थी.

भावेश जब 20 साल के हुए तो उनकी आंखों की रोशनी चली गई. उसका जीवन अब अँधेरा हो गया था. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जब पढ़ाई के दौरान उनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह से चली गई थी तो उनकी मां उन्हें किताबें पढ़ना सिखाती थीं. जब वह अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहे थे, तब उनकी मां ने हमेशा भावेश को प्रोत्साहित किया. वह कहती थी कि अगर आप लोगों को नहीं देख सकते हैं, तो कुछ ऐसा करें कि लोग आपकी तरफ देखें. माँ की बातें भावेश के मन में पूरी तरह उतर चुकी थीं. निडर होकर उसने कड़ी मेहनत करना शुरू कर दिया.

अपनी दृष्टि खोने के बाद, उन्होंने सीखने की अपनी इच्छा को कम नहीं होने दिया. भावेश ने नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया और यहीं से कौशल प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण शुरू किया. संस्थान विकलांगों को कौशल प्रशिक्षण और ऋण प्रदान करता है. यहीं से भावेश ने कई तरह के काम सीखे. यहीं से उन्होंने मोमबत्तियां बनाना सीखा और इस क्षेत्र में काम करने का फैसला किया. भावेश को अब कच्चा माल खरीदने के लिए पैसों की जरूरत थी.

आर्थिक तंगी से जूझ रहे भावेश का परिवार उनकी किसी भी तरह से मदद नहीं कर सका. इसके बाद उन्होंने होटल में फिजियोथेरेपी की. भावेश ने होटल में कड़ी मेहनत की और अपने व्यवसाय के लिए कुछ पैसे जुटाए. उस आमदनी से जुटाए गए पैसों से उन्होंने बाजार से 5 किलो मोम खरीदकर कारोबार शुरू किया. भावेश ने इस धंधे को सफल बनाने के लिए दिन रात मेहनत की. वह रात में मोमबत्तियां बनाकर दिन में उन्हें महाबलेश्वर की एक छोटी सी दुकान में बेच देता था.

संघर्ष के दिनों में मिला जीवनसाथी

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इस बीच, भावेश संघर्ष कर रहा था. इसी दौरान उनकी मुलाकात महाबलेश्वर के मंदिर में एक लड़की से हुई. लड़की का नाम नीता था. उसने भावेश को आश्वासन दिया कि वह मोमबत्ती के काम की मार्केटिंग संभालेगी. धीरे-धीरे दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई. बाद में दोनों ने शादी कर ली. भावेश अपनी मां के बाद नीता को अपनी सफलता में सबसे बड़ा योगदानकर्ता मानते हैं.

नीता से शादी के बाद उनकी जिम्मेदारियां और बढ़ गईं. लेकिन यह भी कहा जाता है कि अगर ऊपर वाला व्यक्ति जिम्मेदारियों को बढ़ाता है तो उन्हें सफल बनाने का रास्ता भी दिखाता है. भावेश को सतारा सहकारी बैंक से 15,000 रुपये का कर्ज मिला. उन्होंने नेशनल ब्लाइंड एसोसिएशन से ऋण प्राप्त किया. इस पैसे से उसने बहुत सारा मोम, कुछ पेंट और एक ठेला खरीदा.

बाद में उन्होंने घर में एक छोटी सी फैक्ट्री लगा ली. यहां उन्होंने रसोई के बर्तनों आदि का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के मोम के सामान बनाना शुरू किया. जब कारखाने ने अच्छी तरह से काम करना शुरू किया, तो उन्होंने 1996 में सनराइज कैंडल्स नाम से अपनी खुद की कंपनी शुरू की. आज उनकी कंपनी प्रतिदिन 25 टन मोम बेचती है. वे आकर्षक डिजाइनों के साथ बेचते हैं. साथ ही यहां 350 से ज्यादा नेत्रहीन कर्मचारियों को नौकरी दी गई है.

दुनिया भर से करीब 2000 लोग इस कंपनी से जुड़े हैं. भावेश की कंपनी का सालाना टर्नओवर 30 करोड़ रुपये से ज्यादा है. भावेश ने मुश्किलों का सामना करते हुए यह मुकाम हासिल किया है.

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